अब तो श्मशान में दबे मुरदों को भी पता चल गया होगा कि मनोज शुक्ला नाम के एक लेखक ने “आदिपुरुष” फिल्म की पटकथा लिखी है। क्या कमाल की लेखनी का नजारा पेश किया है मनोज बाबू ने। एक ऐसे समय में जब पूरा देश “जय श्री राम” के जयघोष में डूबा है, जनता ने रामायण पर आधारित फिल्म को देखने से मना कर दिया है। वैसे तो बॉलीवुड की रेस-3 जैसी बहुत सी ऐसी फिल्में चली है जिसमें पटकथा के नाम पर दर्शकों की भावनाओं से सिर्फ खिलवाड़ किया गया है लेकिन इस बार तो जैसे कमाल ही हो गया। जिस राम का नाम लेकर डूबता पत्थर भी तैरने लगता है, उन्हीं भगवान राम के जीवन पर बनी फिल्म को बॉक्स-ऑफिस पर पानी भी नसीब नही हो रहा है।
ऐसा नही है लोग फिल्म देखने नही गए, फिल्म ने पहले 3 दिन में पूरे भारत में 200 करोड़ से अधिक का कलेक्शन किया लेकिन फिल्म के बेतुके संवाद और लेखन ने इतनी बड़ी फिल्म और दर्शकों की सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। फिल्म के प्रमुख चरित्र हनुमान, मेघनाद इत्यादि ने कई ऐसे पंक्तियाँ बोली जिसे सुन दर्शकों का पारा चढ़ गया। “कपड़ा तेरे बाप का, तेल तेरे बाप का, आग भी तेरे बाप का, तो जलेगी भी तेरे बाप की”, “तेरी बुआ का बगीचा है क्या”, “निकल”, “मेरे एक सँपोले ने तेरे शेषनाग को लंबा कर दिया”, जैसे कई संवाद इंटरनेट और सोशल-मीडिया पर मीम बन बरस पड़े। यहाँ तक तो शायद ठीक था मगर न्यूज़ चैनलों पर लेखक मनोज शुक्ला के ऊटपटाँग जवाबों ने तो जैसे आग में घी का काम किया। मनोज बाबू का तो मिजाज ही बदल गया। बदलते बयानों के बीच मनोज के तेवर भी बदलते नजर आए। एक बार तो उन्होंने रुद्र के अवतार हनुमान को भगवान मानने से इंकार कर दिया। बक़ौल मनोज “बजरंगबली भगवान नही हैं, भक्त हैं, हमने उनको भगवान बनाया बाद में”।
और अब मनोज बाबू को इस बात का अंदाजा हो गया है कि धर्म और आस्था दो-धारी तलवार है। धार्मिक मान्यताओं और आस्था के देश में धार्मिक ग्रंथ और सांस्कृतिक धरोहरों से छेड़छाड़ सिर्फ मनोज शुक्ला नही बल्कि पूरी “आदिपुरुष” की टीम को मंहगा पड़ गया है। हिन्दू संगठन फिल्म को बैन करने की माँग कर रहे हैं। दर्शक लेखक मनोज और निर्देशक ओम रावत को खरी खोटी सुना रहें हैं।
राम नाम की महिमा का प्रताप ही ऐसा है कि इतना सबकुछ होने के बाद भी शायद “आदिपुरुष” फ्लॉप नही होगी। जब राम नाम के पत्थर को समुन्द्र नही डूबा सका तो राम के नाम से बनी फिल्म कम से कम भारत में तो नही पीट सकती है। लेकिन बीते कुछ दिनों की घटनाओं ने बॉलीवुड की पोल खोल दी है। दर्शकों को इस बात का एहसास हो चुका है कि इनके लिए धर्म और राम का नाम भी पैसे कमाने का जरिया है।
लेकिन इन सब घटनाक्रम के बीच पीस गए कुछ ऐसे बड़े कलाकार जिनकी प्रतिभा का लोहा पूरी दुनिया मानती है। सोश्ल- मीडिया पर छाए मीम और गुस्से के बीच फिल्म के अभिनेता प्रभास, सैफ, कृति और संगीतकार अजय-अतुल, सचेत-परंपरा और श्रेया घोषाल- सोनू निगम तो जैसे गायब ही हो गए। भले ही कई आलोचकों को प्रभास के चेहरे में राम के दर्शन नही हुए लेकिन जिस देश में अरुण गोविल जैसे कलाकार राम का किरदार निभा कर सदा के लिए अमर हो गए, उस देश में राम के भक्तों के लिए तो राम का नाम ही काफी है, फिर प्रभास तो आज भारत के सबसे बड़े अभिनेताओं में से एक है। फिल्म के लेखक और निर्देशक ने रामायण के आधुनिक स्वरूप गढ़ने के चक्कर में भद्दे संवाद, विभीषण की पत्नी, टैटू वाला मेघनाद जैसे बदलाव को युवा वर्ग की पसंद के नाम पर तोड़ मरोड़ कर पेश कर दिया। भले ही थिएटर में लोगों ने प्रभास के संवाद और हनुमान की एक-एक झलक पर “जय श्री राम” का घोष किया, लेकिन बाहर आकर उन्हीं दर्शकों ने लेखक और निर्देशक को बुरा भला कहने में कोई कसर नही छोड़ा।
शायद इन दोनों महानुभावों ने रामायण की आत्मा को कभी समझा ही नही। मौजूदा राजनीति और माहौल को ध्यान में रख राम-नाम के प्रभाव को भुनाने के चक्कर में एक मसालेदार फिल्म तो बना दिया, बस ये न समझ पाये कि आधुनिकवाद और युवा वर्ग की पसंद के नाम पर भारतीय लोगों के हृदय में बसे राम के स्वरूप को बदल पाना किसी के बस का नही है। निश्चित रूप से बीते कुछ साल में राम नाम का भी राजनीतिकरण किया गया है और लगभग सभी बड़ी राजनीतिक दलों ने राम और बजरंगबली के नाम पर वोट माँगे। लेकिन इन राजनीतिक दलों ने राम के नाम को उनके वास्तविक स्वरूप में प्रस्तुत किया न कि कोई आधुनिक स्वरूप गढ़ने का प्रयास किया। लेकिन मनोज- ओम की जोड़ी ने रचनात्मकता और आधुनिकीकरण की आड़ में रामायण को बॉलीवुड के मसालेदार स्टाइल में बनाने की भूल की और अपना ही धागा खोल कर रख दिया।
पिछले कुछ वर्षों में “बाहुबली, केजीएफ़, आरआरआर और पठान जैसी फिल्मों की अपार सफलता ने यह साबित किया है कि युवा वर्ग को सिर्फ बेहतर पटकथा, अचूक निर्देशन, सजीव अभिनय से ही लुभाया जा सकता है, लेकिन मनोज-ओम ने बॉलीवुड की टपोरी भाषा को युवा वर्ग की पसंद समझने की भारी भूल कर दी। और नतीजा यहाँ तक जा पहुँचा है कि “आदिपुरुष” फिल्म के कुछ चुनिन्दा संवादों को बदलने की नौबत आ गई है। पिछले 2-3 साल में एक के बाद एक फ्लॉप फिल्मों के सिलसिले के बाद भी अगर फिल्म निर्माण करने वाले इस तरह की हरकत से बाज़ नही आ रहे हैं तो दर्शकों को अब यह समझ जाना चाहिए कि ये सब गलती से नही हो रहा है। वास्तव में ऐसे लेखक और निर्माताओं के पास क्षमता ही नही है कि वे एक सफल फिल्म फिल्म का निर्माण कर सकें। शायद इसलिए कि उन्हें इस बात का अंदाज़ा ही नही है कि सफल फिल्मों का निर्माण करने के लिए एक कलात्मक सोच और रचनात्मक तरीके की आवश्यकता है न कि दर्शकों को बेवकूफ समझ कर 600 करोड़ खर्च कर कुछ भी ऊटपटाँग बना कर, धर्म के नाम का सहारा लेकर फिल्म का प्रमोशन कर देने भर से और बड़े बड़े मल्टीप्लेक्स में फिल्म को रिलीज करने से फिल्म सफल हो जाएगी।
जय श्री राम !!