बिहार की शीतलहरी में किसान का जीवन (भाग 1)

वैसे तो छोटे बच्चों को भी विद्यालय में पढ़ाया जाता है कि सूर्य इस संसार में ऊर्जा का एक मात्र स्रोत है और संसार के सभी पेड़ पौधे और जीव इसी सूर्य की ऊर्जा से अपना पोषण करते है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह समझना काफी आसान है कि सूर्य पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व के लिए कितना आवश्यक है, इतना आसान कि छोटे बच्चों को भी यह बात समझ में आ जाता है लेकिन बिहार राज्य में दिसम्बर और जनवरी के मौसम में ठंड जब अपने चरम पर हो तब सामान्य लोगों को धूप के महत्व का वास्तविक अंदाज़ा होता है।

बिहार किसी पहाड़ी क्षेत्र या जंगली क्षेत्र में बसा राज्य नही है कि यहाँ ठंड का प्रकोप अधिक हो, वास्तविकता तो यह है कि बिहार तो गंगा और अन्य दूसरी नदियों के तट पर बसा एक ऐसा राज्य है जिसकी गिनती मैदानी क्षेत्रों के रूप में की जाती है। लेकिन फिर भी जनवरी से लेकर दिसम्बर तक में ही मौसम के सभी रूपों का दर्शन इस राज्य मे आसानी से हो जाता है। चाहे मई जून की गर्मी हो या जुलाई अगस्त के महीनों में बाढ़ का विनाशकारी स्वरूप या जनवरी के महीने में शीतलहर की आगोश में थरथराता हुआ जीवन, यह हमें बिहार के अलग अलग रूपों से हमारा परिचय करवाता है।

बिहार इस समय जनवरी की ठंड से जूझ रहा है। खेतीबाड़ी से लेकर दुकानदारी तक सभी प्रकार के काम धंधे इस शीतलहरी की चपेट में आ चुके हैं। देश के अन्य कई राज्यों की तरह बिहार में सभी सरकारी और निजी विद्यालय बंद है और जनजीवन पृरी तरह से अस्तव्यस्त हो चुका है।

बिहार उन राज्यों में से नही है जहां सम्पन्नता और विकास की लहर चारों ओर बह रही है, अपितु यह उन राज्यों में गिना जाता है जहाँ गरीबी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार और कुव्यवस्था जैसे अन्य कई बीमारियों ने अपने पैर पसार रखे हैं। बिहारी जनजीवन आज भी अपनी मूलभूत समस्याओं से जूझकर दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए जद्दोजहद कर रहा है और ऐसे में कुदरत का यह कहर जीवन को और अधिक दयनीय बना रहा है। कृषि जहाँ के जीवनयापन का मुख्य आधार हो, वहाँ अगर किसान घर से निकलने में भी असहज महसूस करें तो उस प्रदेश की स्थिति को समझना कोई बहुत मुश्किल नही है।

आजकल के कई छोटे बच्चों की किताब में भी यह पढ़ने को मिलता है कि ऐसे बहुत से छोटे जानवर हैं जो गर्मी के मौसम से ही अपने बिल में ठंड की मौसम की जरूरत को पूरा करने के लिए अनाज के दाने इकट्ठा करना शुरू कर देते हैं। मनुष्य का जीवन भी अगर इसी तरह से सिर्फ दो साँझ के भोजन की जुगाड़ में बीत रहा हो तो यही इस बात का जीता जागता सबूत है कि इस मोबाइल, कंप्यूटर और प्रौद्योगिकी के युग में भी बिहार जीवन के किन समस्याओं से जूझ रहा है। बिहार की विडंबना यह नही है कि बिहार में संसाधनों का पूर्ण अभाव है या बिहार में मेहनत करने वाले मजबूत हाथ नही हैं या बिहार के लोगों में इतनी क्षमता नही है कि वे अपनी रोजमर्रा की समस्याओं को दूर न कर सकें। बिहार की विडंबना यह है कि संसाधन सिर्फ पेट भरने के काम आ रहे हैं वो भी बड़ी मुश्किल से , मेहनत करने वाले हाथ रोजगार को तरस रहे हैं और क्षमतावान अपने हाथ में मशाल लेकर किसी दूसरे शहर या राज्य की ठंडी दूर कर रहे हैं।

ठंड की मार झेल लहलहाता फ़सल

कहने को ठंड सिर्फ एक मौसमी समस्या है जो साल में एकाध महीने के लिए आती है लेकिन इसी एकाध महीने में यह सारे विकास और रोजगार के खोखले दावों की पोल खोल देती है। अगर इस वाट्सएप्प और फेसबुक के युग में भी लोग इस कदर ठंड के आगे बेबस हैं कि सुबह शाम चौक-चौराहे पर अलाव जला कर अपनी बेबसी को आग की लौ में धीरे धीरे सुलगता हुआ देख रहे हैं या इस 10 से 12 डिग्री तापमान में भी छोटे छोटे बच्चे पैर में जूते और शरीर पर गरम कपड़े को तरस रहे हैं तो क्या ये काफी नही है उन AC या हीटर में बैठे उन आला अधिकारियों के लिए या बड़े पदों पर आसीन उन नेताओं के लिए जो दावे तो बड़े बड़े करते है लेकिन अपने खोखले दावे का हश्र देखने के लिए शायद उनके पास दो मिनट का फुरसत भी नही है।

विडंबना यह है कि बिहार के गरीब किसान भी ठंड के समय अपने बच्चों के लिए शाल और स्वेटर से पहले अपने पालतू जानवरों के बैठने के लिए धान के लार की व्यवस्था करना ज्यादा जरुरी समझते हैं । शायद इस उम्मीद में कि अगर जानवर सुरक्षित रहे तो घर चलाना थोड़ा आसान हो जाएगा। वैसे भी ठंड से बचाव की चिंता किसे है, ग्रामीण किसान परिवार अपने बच्चों को तो सिर्फ ठण्ड को बर्दाश्त करने और झेलने की शिक्षा देते हैं, वो भी तब जब अपने काम से बच्चों के लिए छुट्टी मिल जाये तो। कृषि प्रधान राज्य में किसानों की दुर्दशा का आलम कुछ ऐसा है कि शहरी क्षेत्रों की तर्ज पर गाँव के सरकारी विद्यालयों को भी इस उम्मीद में प्रशासन द्वारा बंद किया जाता है कि गाँव के बच्चे भी शहरी बच्चों की भाँति चारदीवारी में बंद रहेंगे लेकिन इस जानलेवा ठंड के मौसम में भी किसान के बच्चे कहीं आलू के खेत में पानी पटाने में अपने माँ-बाप की सहायता कर रहे हैं तो कहीं गेहूँ की नई फसल में पानी डाल रहे हैं ,और तो कुछ खेतों में घूम-घूम गन्ने का रस चूस कर दिन व्यतीत कर रहे हैं।

ठंड जैसे मामूली मौसम में परिवर्तन को भी विशालकाय आपदा जैसा सम्मान मिलता है हमारे बिहार में। और इसका मुख्य कारण है बिहारियों का ही अपना नजरिया। शीतलहरी और कंपकंपी की जो खबरें बड़े मीडिया चैंनलों पर दिन रात बजती रहती है ऐसी खबरों से तो बिहारियों के कान पर जूं भी नही रेंगता है। ये संभव है कि ठंड से किसी की जान ही न क्यों चली जाए लेकिन ये संभव नही कि इससे बगल वाले की दिनचर्या बदल जाए। ठेठ बिहारी की मानसिकता ही कुछ ऐसी हो गई है कि जीने की ललक औऱ पेट की आग ने जैसे कंपकंपाती ठंड का भी गला घोंट दिया हो।

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