अयोध्या से प्रथम परिचय-भाग 1

अयोध्या में राम मंदिर की धुन में नाच रहा है सम्पूर्ण राष्ट्र। सदियों के इंतज़ार के बाद अगले कुछ दिनों में राम मंदिर में भगवान राम की मूर्ति का “प्राण-प्रतिष्ठा” होने जा रहा है। सोशल-मीडिया राम-मय है। लोग भगवान राम की फोटो लगा कर रोज कुछ न कुछ लिख रहे हैं, रील्स बना रहे हैं। लेकिन अयोध्या की खबर कुछ अनोखी है। ऐसा लग रहा है जैसे इस सदी के सबसे बड़े समारोह की साक्षी बनने जा रही है अयोध्या की धरती। लाखों लोगों की भीड़ रोज अयोध्या में प्रवास कर रही है। तरह तरह के कार्यक्रम रोज आयोजित किए जा रहे हैं। कभी गीत-संगीत, कभी दिया कार्यक्रम, कभी गुजरात से आई अगरबत्ती, कभी आसमान में जगमगाती रौशनी।

लोग इंतज़ार में हैं, क्यों न हों। राम-कृष्ण की धरती पर अगर अयोध्या ही राम मंदिर-विहीन हों तो कौन भरोसा करेगा रामायण के उन पवित्र मूल्यों पर जो हमें जीवन के मूल मंत्रों को सहज ही सीखा जाते हैं। परंतु यह एक अचरज भरा सच है कि अयोध्या राम की जन्मभूमि है लेकिन फिर भी अयोध्या का सूनापन जैसे खाने को दौड़ता था। कुछ साल पहले मैं वाराणसी से बाराबंकी की यात्रा कर रहा था कुछ आवश्यक कार्य से, 2017 में अप्रैल या मई ।  लगभग 10 बजे रात में ट्रेन वाराणसी से रवाना हुई। यात्रा की योजना जल्दीबाजी में बनाई गई थी, रिज़र्वेशन तक करवाने का समय न मिला। इसलिए जनरल कोच में ही यात्रा कर रहा था। अकले सफर करने का कुछ अलग ही मजा है। बहरहाल, भीड़ ऐसी ही थी जैसा उम्मीद किया था। पैर हिलाने तक का जगह नही था। सीट मिलने की तो उम्मीद मैंने भी नही किया था, बस इतना सोचा था कि रात भर का सफर है, खड़े खड़े भी कट ही जाएगा लेकिन उस भीड़ में खड़ा होना भी दूभर हों रहा था।

ऊपर से रास्ते में आने वाले स्टेशन पर अजीब ही दृश्य था। ट्रेन में चढ़ने वाले तो भरे पड़े थे लेकिन उतरने का तो जैसे कोई नाम भी नही ले रहा था।  रास्ते में जौनपुर, शाहगंज, अकबरपुर इत्यादि जैसे कुछ स्टेशन आए और भीड़ बढ़ती चली गई। मुझे बाराबंकी बाज़ार में कपड़ो के बारे में कुछ जानकारी लेनी थी तो सुबह के 9-10 बजे तक मुझे बाराबंकी पहुँचना था जबकि ट्रेन मुझे सुबह के 4-5 बजे ही उतारने वाली थी। अब ऐसी भीड़ देख मेरा मन थोड़ा विचलित हों रहा था लेकिन चलते ट्रेन से उतर भी नही सकते थे।

ट्रेन रात के लगभग 1:30  से 2  बजे रात अयोध्या स्टेशन पहुँची। एकदम सन्नाटा सा पसरा था। देखने में कोई छोटे मोटे हाल्ट जैसा लग रहा था। उस भीड़ में बाहर साफ साफ दिखाई भी नही दे रहा था। लेकिन कभी कभी लंबाई काम आ ही जाती है। कुछ लोग ट्रेन में चढ़े, मैंने किसी को उतरते हुए तो नही देखा। लगभग 2 मिनट रुकने के बाद ट्रेन खुली लेकिन मैं न जाने क्यों, ट्रेन के रफ्तार पकड़ने से पहले ट्रेन से उतर गया। एक बार तो मुझे भी विश्वास नही हों रहा था कि ट्रेन जा चुकी है, और मैं अकेले प्लैटफ़ार्म पर खड़ा था। मैंने पीठ पर एक बैग रखा था जिसमें कुछ कपड़े ही थे बस और ब्रुश, पेस्ट, मोबाइल चार्जर जैसे कुछ छोटे सामान।  

“भीड़” को कारण नही कह सकता, कोई पहली बार ऐसी भीड़ नही देखी थी मैंने, लेकिन उतरने के बाद मैंने एक लंबी चैन की साँस ली। आसपास देख कर स्टेशन के मुख्य भाग की तरफ जाने वाली सीढ़ी खोजने लगा। अधिक मेहनत नही करना पड़ा। जल्द ही मैं अयोध्या स्टेशन के टिकिट काउंटर के पास खड़ा था। कुछ 10-15 लोग और थे। 2-3 बंदर इतनी रात गए भी स्टेशन पर टहल रहे थे। थोड़ा बहुत ठंड भी असर कर रहा था। मैंने बैग से चादर निकाल कर ओढ़ लिया और सुबह के इंतज़ार में इधर उधर टहलने लगा। सच यह था कि स्टेशन पर बैठने की पर्याप्त व्यवस्था तक नही थी।

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