“चूहे बिल्ली का खेल” कहने की कोई आवश्यकता नही हैं क्योंकि इंटरनेट और यूट्यूब के आने से बिहार के बच्चे भी “टॉम और जेरी” को अच्छी तरह से पहचान चुके हैं। लेकिन बिहार की मौजूदा राजनीति की व्याख्या करने के लिए इससे बेहतर कोई शब्द नही। बिहार की राजनीति के जाने-माने धुरंधर नीतीश कुमार राजनीति के इस उठा-पटक के बीच अभी भी अपनी गद्दी बचाने में सफल हैं, बस साथी बदल गया है। भाजपा और जदयु की साँठ-गाँठ एक लंबे समय तक चली लेकिन इस गठबंधन के हश्र को देख ये अनुमान लगाना मुश्किल नही है कि नीतीश कुमार शायद कभी भी भाजपा कि विचारधारा से जुड़ नही पाये। उनका गठबंधन सिर्फ राजनैतिक जोड़तोड़ और जरूरत की गठबंधन था।
साल 2017 में जब नीतीश कुमार ने अपने आपको बहुचर्चित महागठबंधन से अलग किया था तब ये स्पष्ट था कि नीतीश कुमार के साथ दबाव की राजनीति अधिक समय नही चलने वाली है और यह बात शायद भाजपा नेतृत्व समझ नही पाये। अगर जनता किसी भी पार्टी को चुनाव में बहुमत न दे तो बिहार की राजनैतिक इतिहास के आधार पर बिहार के लिए नीतीश कुमार की सरकार अब तक की सबसे सफल सरकार मानी जा सकती है। राजनीति सिर्फ लोकसभा या विधानसभा में नही होती है। जनता के गलियारों में भी राजनीति का हर दाँव खेला जाता है और उसी दाँव ने पिछले विधानसभा के नतीजों ने नीतीश कुमार को फिर से बिहार की बागडोर सौंपी। नीतीश कुमार के राजद के साथ आने के फैसले के पीछे इस कारण को नज़रअंदाज़ नही किया जा सकता है कि वे राजद सुप्रीमो लालू यादव नही बल्कि तेजस्वी यादव की राजद से गठबंधन कर रहे हैं। किसी भी राजनीतिक पार्टी की विचारधारा बदलने में भले ही लंबा वक़्त लगता है लेकिन सत्ता के गलियारों में राजनीति की हवा हर पल बदलती रहती है और भूतपूर्व लोजपा अध्यक्ष माननीय रामविलास पासवान के निधन के बाद शायद बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार के अलावे शायद ही कोई ऐसा नेता है जो उन हवाओं के रुख को भाँप अपनी चल बदल सके।
और नीतीश कुमार ने अगर चाल बदल लिया है इसका मतलब यह तो स्पष्ट है कि हवाओं का रुख बदल चुका है। जाहिर है कि भाजपा अगले चुनाव की तैयारी में व्यस्त है, जदयु से अलग होकर राजद से हाथ मिलाने का विकल्प भाजपा के पास कभी था ही नही, और इसलिए भाजपा के इस “स्वर्ण युग” में भी पार्टी को बिहार में विपक्ष की भूमिका निभाना पड़ रही है। हाँ भाजपा को इस बात का श्रेय जरूर दिया जाएगा कि अब उसने सहयोगी दल नही बल्कि सत्ताधारी पार्टी बनने की डगर को चुना है। हर या जीत ये अगला चुनाव निश्चित करेगा, बहरहाल नीतीश कुमार के फैसले ने जनता के बीच तेजस्वी यादव की बढ़ रही लोकप्रियता को और अधिक बल दिया है। पिछले एक दशक में बिहार में तेजस्वी यादव ही एक मात्र ऐसे नेता है जिसने हर बीते हुए समय के साथ अपनी ताकत को मजबूत किया है। भले ही पार्टी अभी भी अपने लक्ष्य से बहुत दूर दिखाई दे रही है लेकिन जनता के बीच मुख्यमंत्री से अधिक तेजस्वी यादव का नाम गूँज रहा है।
राजनीति की मौजूदा माहौल में किसी और की चर्चा हो न हो, राहुल गाँधी के “भारत जोड़ो यात्रा” की चर्चा पूरे भारत में हो रही है। राहुल गाँधी के इस “अवतार” की कल्पना तो शायद ही राजनीति के किसी पंडित ने की होगी। हमारे देश के बड़े बड़े न्यूज़ चैनल जो प्रधानमंत्री का महिमामंडन कर अपने आपको धन्य समझते थे, आज राहुल गाँधी की यात्रा का अभिन्न अंग बन हैं। शायद की काँग्रेस का कोई कार्यकर्ता इतनी शिद्दत से राहुल गाँधी के पीछे दौड़ होगा जिस शिद्दत से मीडिया के लोग राहुल गाँधी के पीछे दौड़ रहे हैं। भाजपा भले ही ऊपर से इस “भारत जोड़ो यात्रा” को हल्के में ले रही है लेकिन वो ये भूल रहे हैं कि जिस मंहगाई ने स्मृति ईरानी जैसे सफल टेलिविजन अभिनेत्री को एक सफल राजनीतिक खिलाड़ी बना दिया वही मंहगाई आज भी अपना सुरसा-मुख खोले हर दुकान, मॉल के आगे बैठी है। इस यात्रा का बिहार की राजनीति में क्या असर पड़ेगा, यह तो समय आने पर ही पता चलेगा लेकिन ये निश्चित है कि बिहार के लोग राहुल का स्वागत खुले बाँहों से करेंगे, फूल और गीतों से करेंगे। अतिथि का स्वागत तो धूमधाम से होगा लेकिन क्या इसका असर चुनावी गठबंधन पर होगा या नहीं, यह अब काँग्रेस से अधिक राजद और जदयु के विवेक पर निर्भर करता है।
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