वैसे तो बिहार राज्य में हिन्दू धर्म से जुड़े लगभग सभी त्योहार पूरे धूमधाम के साथ मनाया जाता है लेकिन जिस तरह से महाराष्ट्र में गणपती पुजा और बंगाल में दुर्गा पूजा का स्थान सबसे ऊपर है ठीक उसी प्रकार से बिहार राज्य में छठ पुजा का महत्व अन्य सभी त्योहारों से अधिक माना जाता है। छठ पुजा को धर्म और लोक आस्था का महापर्व भी कहा जाता है। समय में बदलाव के साथ सभी त्योहारों का एक नव संस्करण देखने को मिला है। मोबाइल और इंटरनेट के युग में त्योहारों को मनाने के तरीके में कई अनोखे बदलाव देखने को मिले हैं, लेकिन छठ पुजा आज भी उन्ही पुराने ठेठ ग्रामीण जीवन के तौर तरीकों और जीवनशैली की पताका लिए आगे बढ़ रहा है।
भले ही अन्य भारत के अन्य राज्यों की तुलना में बिहार को “पिछड़ा” और “बीमारू” राज्य की संज्ञा दी जाती है लेकिन पिछले कुछ समय में, विशेष रूप से मोबाइल और इंटरनेट क्रांति के बाद, हर तबके के लोग अपने आप को मुख्यधारा से जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं। और इस प्रक्रिया ने बिहार राज्य के जीवन शैली और रहन-सहन को प्रभावित किया है। लोगों के मन में पर्व त्योहारों के प्रति एक उदासीनता देखने को मिलता है। बाहर रहकर अपना जीवन यापन करने वाले लोग हर त्योहार में घर आना जरूरी नही समझते हैं। लेकिन छठ पुजा का उमंग और जोश लोगों में आज भी वैसा ही है जैसा कुछ साल पहले था। ऐसा नही है कि सभी अन्य राज्यों में रहने वाले बिहारवासी छठ पुजा में बिहार आ ही जाते हैं लेकिन जो न आ पाते हैं उनका मन रह-रह कर पारण का प्रसाद खाने को लालायित रहता है और इस उम्मीद में रहते हैं कि शायद कोई उनके गाँव से छठ का प्रसाद ले आए।
छठ पुजा क्यों मनाया जाता है?
भारत में छठ पुजा का इतिहास महाभारत और रामायण कल से जुड़ा हुआ है। ऐसा माना जाता है कि वनवास काल पूरा करने के बाद अयोध्या आने के बाद सूर्यवंशी भगवान राम और देवी सीता ने अपने कुल-देवता सूर्य को सरयू के जल में खड़े होकर अर्घ्य दिया था तभी से लोग हर वर्ष जल में खड़े होकर सूर्यदेवता को अर्घ्य अर्पण करते हैं। उन्ही मान्यताओं के अनुसार महाभारत काल में अंगप्रदेश के राजा, सूर्य देवता के आशीर्वाद से उत्पन्न कुंतीपुत्र कर्ण प्रत्येक दिन नदी के जल में खड़े होकर सूर्यदेवता को अर्घ्य देते थे और इसी कारण से अंग प्रदेश में जो आज बिहार राज्य में भागलपुर और तटवर्ती क्षेत्र के रूप स्थित है, आज भी लोग प्रत्येक वर्ष छठ पुजा के अवसर पर नदी या तालाब के जल में खड़े होकर सूर्य देवता को अर्घ्य देते हैं।
छठ पुजा किस प्रकार से मनाया जाता है?
छठ पुजा मुख्य रूप से सूर्य देवता को अर्घ्य अर्पित करने का त्योहार है लेकिन भला ऐसा त्योहार है भारत में जो अपने साथ कुछ रीति-रिवाजों को साथ न लाये और इसी तरह छठ पुजा भी कार्तिक मास की चतुर्थी को “नहाय खाय”, पंचमी को “खरना”, षष्ठी को अस्ताचल सूर्य को अर्घ्य और सप्तमी तिथि को उगते हुए सूर्य को अर्घ्य अर्पित किया जाता है।
कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि में छठ पर्व का प्रथम दिन होता है जब सभी छठ व्रती सुबह प्रातः काल उठ कर साफ सफाई करते हैं स्नान कर पुजा एवं व्रत का संकल्प लेती हैं और फिर प्रसाद रूप में अरवा चावल, चना दल और कद्दू की सब्जी ग्रहण कर इस त्योहार का आरंभ करती हैं। इस दिन कद्दू की सब्जी खाना शुभ माना जाता है। बाज़ार में कद्दू का भाव आसमान को छूने लग जाता है। पर इस समाज में ऐसे कई निःस्वार्थ भाव से जीवन बिताने वाले ऐसे लोग भी होते हैं जो सुबह से ही कद्दू बाँटना शुरू कर देते हैं। अगर पूरा न सही तो एक टुकड़ा काट कर ही सही लेकिन लोग अपने हितैषियों और आस पड़ोस में कद्दू जरूर पहुचाते हैं। और शायद यही तो पर्व त्योहार को मनाने का वास्तविक स्वरूप है। जो समाज में अलग अलग बंटे लोगो को जोड़ न सके वो पर्व कैसा और जिस पर्व की शुरुआत ही ऐसे शुभ कर्मो के साथ हो, तो उसे धर्म और आस्था के महापर्व की संज्ञा देना अनुचित नही है। अगले दिन “खरना” में सभी छठ व्रती महिलाएं पूरे दिन निर्जला व्रत रखती हैं तथा रात शाम में गुर से बनी खीर खाकर पुनः व्रत धारण करती हैं।
अस्ताचल सूर्य को अर्घ्य अर्पण
षष्ठी तिथि को सभी छठ व्रती पूरे दिन उपवास रखकर दिन भर पकवान इत्यादि पकाती हैं जिसके लिए अलग से मिट्टी का चूल्हा बनाया जाता है और और जलावन के रूप में सिर्फ आम की लकड़ियों का प्रयोग किया जाता है। महिलाएं विभिन्न प्रकार के पकवान जैसे कि “टिकरी, पीडिकिया, पूरी” इत्यादि पकाती हैं। शाम में सूर्य के डूबने से पूर्व सभी लोग अपने पूरे परिवार के साथ सभी बाँस के बने “सूप” और “छिट्टा” या अन्य नए धातु के बर्तनो में लेकर पास के नदी या तालाब के पास इकट्ठा हो जाते है और इस प्रकार प्रारम्भ होता है छठ पुजा के मुख्य भाग का। सभी छठ व्रती जल में खड़े होकर प्रसाद, जल, एवं क्षेत्रीय गीत इत्यादि से डूबते हुए सूरज को अर्घ्य देते हैं। और फिर एक एक कर सब अपने अपने घरों को आते हैं।
उगते सूर्य को अर्घ्य
सप्तमी की सुबह सूर्योदय से पूर्व ही सभी व्रती जल में खड़े होकर लोकगीत इत्यादि गाकर सूर्य देवता की वंदना करती हैं तथा सूर्य के उगने का इंतज़ार किया जाता है। सूर्योदय के बाद सभी व्रती अर्घ्य अर्पण करती हैं और इस प्रकार से छठ पुजा सम्पन्न होता है। घर वापिस आ कर सभी बड़े बुजुर्ग एवं बच्चों को प्रसाद दिया जाता है जिसका वे बड़ी बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे।छठ पुजा का महत्व इस लिए भी बढ़ जाता है कि अर्घ्य अर्पण करने के लिए समाज के सभी वर्ग के लोग एक साथ सामाजिक सौहार्द्ता का परिचय देते हुए तट पर एकत्रित होते हैं। चाहे इस पर्व का आयोजन हो या नदी तट की साफ-सफाई, या फिर घाटों को सजाना, समाज के सभी तबके के लोग, आपसी सहयोग का परिचय देते हुए इस महापर्व के सफल आयोजन में भागीदार बन अपने आप को गौरवान्वित महसूस करते हैं।
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