भले ही पिछले कुछ दिनों से धूप ने भी निकलना बंद कर दिया था लेकिन आज लगभग 6-7 दिन के बाद सुबह 11:30 के बाद धूप ने दर्शन दिया। मानों जीवन की उम्मीद वापिस हाथ लग गई हो। सही कहावत भी है कि “डूबते को तिनके का सहारा”। लेकिन इस ठंड से थोड़ी काँपती, थोड़ी मचलती धूप जो खुद भी शायद खिलखिलाने को बेताब थी, ने आकर ठंड से जूझ रहे आम लोगों के बीच उम्मीद की एक नई किरण जगा दी।
दोपहर 12 बजे के बाद हल्की खिली धूप में पक्षियों की चहचहाहट ने जैसे अलग ही समां बाँध दिया। आसपास के पेड़ों पर, बिजली के खंभों के पास कई चिड़िया बार बार फुदक रही थी। पास की सड़क जैसे सोकर फिर उठ चुकी थी। कई छोटे बड़े वहाँ से लगातार ही गुजर रहे थे। गाड़ियों की कर्कश हॉर्न भी मीठी धुन जैसे बज रही थी। सड़क से कुछ दूर खेतों में दौड़ते और खेलते बच्चों की हँसी और खिलखिलाहट कानों में आ रही थी।
कई बच्चे तो ऐसे भी थे जो हाथ में बैट और बॉल लेकर मैदान की धूल फाँकने निकल चुके थे। शरीर पर चढ़ा हुआ ऊनी कपड़ों का भारी वजन भी उनकी तेज रफ्तार को कम नही कर पा रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे वे ठंड के कारण अकड़ चुकी हड्डियों को फिर से सीधा कर रहे हों।
कुछ अजीब सी चमक थी इस धूप में। मन जैसे घंटों इस मखमल जैसी मुलायम धूप की किरणों के बीच इठलाने को बेताब था। धूप की चमक किसी छोटे बच्चे के खिलखिलाते चेहरे जैसा प्रतीत हो रहा था जिसे निहारने के लिए लोग अपने अपने छतों पर, खुले मैदान में डेरा डाले बैठे थे। वैसे तो धूप जीवन के दूसरे रूप ही है मनुष्यों के लिए, लेकिन हमने धूप के उस रूप को भी जिया है जब मई-जून के महीने में यही धूप काल का रूप धारण कर जैसे सर्वनाश करने को आतुर हो। आज उसी धूप का न जाने किस बेसब्री से लोग इन्तज़ार कर रहे हैं और जब धूप निकल आया तो उसकी गरमाहट समेटने को व्याकुल हो रहे हैं।
मनुष्य तो क्या, जानवर भी जैसे इस धूप के लिए पलके बिछा बैठे थे। जानलेवा ठंड के कारण जो जानवर दिन रात शीतलहरी के झोंकों की मार से बेदम हुए जा रहे थे वे जानवर भी खुली धूप में बैठ चैन की साँस ले रहे थे। गाय अपने बछड़े का शरीर इस तरह चाट रही थी जैसे धूप की किरणों ने उसके बछड़े को पुनर्जीवित कर दिया हो। नवजात बच्चा चाहे मनुष्य का हो या जानवर का, ऐसी ठिठुरा देनी वाली ठंड में माँ अपने नवजात को कुछ ऐसे अपनी छाती से लगा कर रखती है जैसे शीतलहर क्या ठंड के आँधी-तूफान को भी घर के बाहर ही रोक ले। मनुष्य तो फिर भी आजाद है, लेकिन खूँटे से बँधी गाय तो जैसे चाट चाट कर ही अपने बछड़े पर अपने शरीर की सारी गरमाहट न्योछावर कर देती है।
ठंड के कारण अपनी रजाई कम्बल में दुबके लोग कुछ इस तरह फुदक फुदक कर धूप की ओर दौड़ते हैं जैसे छोटे बच्चे मिठाई का नाम सुनकर आसमान से ऊंची छलाँग मारने लगते हैं। गाँव घर के बुजुर्ग लोगों के लिए तो जैसे नया जीवन लेकर आता है यह धूप। ठंड के कारण सबसे अधिक तकलीफ इन्हीं बुजुर्गों को होता है जो या तो बिछावन पर लेट रजाई कम्बल की तीन चार तह बना दिन गिनते रहते हैं या फिर घर के किसी कोने में अलाव जला आग सेंकते रहते हैं। और ऐसे में अगर धूप की एक हल्की सी किरण भी दिख जाए तो वे धूप में बैठने को आतुर हो जाते हैं।
जनवरी की ठंड में धूप की किरण संजीवनी की भाँति ठंड से सिकुड़े लोगों में ऐसी प्राणऊर्जा का संचार करती है जो उनके मन मष्तिष्क में न सिर्फ़ ठंड का सामना करने का बल देती है बल्कि उनके तन में उम्मीद की ऐसी लौ प्रज्वलित करती है जो उनके जीवन को फिर से गुलजार कर देती है।
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